उत्तर प्रदेश में कृषि वानिकी का विकास एवं कार्य योजनाएँ

भारत में 1861 में वन विभाग के संगठन का श्री गणेश हुआ, जबकि उत्तर प्रदेश में कृषि वानिकी के विकास कृषि वानिकी के विकास के लिए वर्ष 1868 में सर्वप्रथम वन विभाग की स्थापना हुई ।

जिसके प्रधान एक आरण्यपाल नियुक्त किये गये, किन्त उत्तर प्रदेश में अन्य स्थानों की अपेक्षा वन forest in hindi) सम्पदा के निर्माण तथा सम्वर्धन का कार्य कठिन था । 

सबसे पहले कार्यकर्ताओं को सर्वेक्षण करना पड़ा और मार्ग - विहीन, दर्गम, निर्जन एवं वन्य जंतुओ से पूर्ण वनों के विस्तृत क्षेत्रों की जाँच, व्याख्या एवं सीमांकन आटिका पडा ।


उत्तर प्रदेश में कृषि वानिकी का विकास


वनों को अग्निदाह और अन्य क्षति से बचाने के लिए ऐसा करना आवश्यक था ।

ताकि मल्यवान वक्षों की गणना करके समुपयोजन की व्यवस्था की जा सके तथा न्याय व माल विभाग के अधिकारियों के सहयोग से वनों में आस - पास की जनता के अधिकारों को पूर्ण रूप से लेखबद्ध किया जा सके ।

सबसे कठिन एवं आवश्यक कार्य था अनेक पीढ़ियों से प्रचलित कुप्रथाओं और कुरीतियों को मिटाना ।

अनियंत्रित चराई, शाख तराशी, अवैध कटान, द्वेषपूर्ण अग्नि प्रज्जवलन, शीघ्र धनी बनने की लालसा रखने वाले ठेकेदारों को स्वार्थपूर्ण कार्यविधि तथा इसी प्रकार के अन्य कुकृत्यों से राज्य के वन लगभग आधी बर्बादी की दशा में पहुँच चुके थे ।

इसलिए अनेक वर्षों तक वन विभाग समुपयोजन की अपेक्षा संरक्षण के कार्य में ही लगा रहा । 

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उत्तर प्रदेश में कृषि वानिकी का विकास एवं कार्य योजनाएँ

एक प्रकार से वन संरक्षण नीति ही प्रारम्भिक वन प्रशासन की आधारशिला है ।

बाद के वर्षों में, विशेष रूप से स्वतंत्रता के बाद प्रदेश में कृषि वानिकी कार्यक्रम का विस्तार हुआ ।


उत्तर प्रदेश में कृषि वानिकी का संवैधानिक एवं कानूनी पक्ष 


स्वतंत्रता उपरांत भारत वासियों ने अपना जो संविधान बनाया उसमें कृषि वानिकी के महत्त्व को स्वीकारते हुए वनों के संरक्षण एवं विकास के लिए स्पष्ट प्रतिबद्धता दर्शाई गई ।

भारतीय संविधान के में राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया कि राज्य देश के पर्यावरण संरक्षण तथा संवर्धन का और वन तथा वन्य जीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा ।

वर्ष 1976 में संविधान के 42 वें संशोधन में भाग 4 के रूप में जोड़े गए अनुच्छेद 51 'क' खण्ड घ में देश के प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य निर्धारित किया गया है ।

कि वह प्राकृतिक पर्यावरण, जिसके अन्तर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव है की रक्षा करे और उसका संवर्धन करे तथा प्राणिमात्र के प्रति दयाभाव रखे ।

साथ ही भारतीय संविधान के 42 वें संशोधन के उपरान्त वन समवर्ती सूची में आ गया है ।

केन्द्र सरकार द्वारा 1980 में पारित वन संरक्षण अधिनियम 1980 के अनुसार वन भूमि को वनेत्तर प्रयोग में लाने के लिए कन्द्र सरकार की पूर्वानुमति अनिवार्य हो गई है ।

यह सभी घटनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर वनों के प्रबन्धन की आवश्यकता को प्रकट करती है ।

जिनका सीधा प्रभाव हमारे प्रदेश ( उत्तर प्रदेश ) वन - सपपाट और पर्वतीय क्षेत्रभिवहन नियमावर्ड । इसका प्रमुख 128 के वन प्रबन्ध पर भी पड़ता है । 


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प्रदेश में वृक्ष पातन को रोकने के लिए 1976 में उत्तर प्रदेश ग्रामीण और पर्वतीय क्षेत्र में वृक्ष संरक्षण अधिनियम 1976 बनाये गये ।

प्रदेश में 1978 में इमारती लकड़ी एवं वन उपज अभिवहन नियमावली लागू हुई ।

उत्तर प्रदेश में 1979 में विश्व बैंक द्वारा पोषित परियोजना 'सामाजिक वानिकी' लागू हुई ।

इसका प्रमुख उद्देश्य ग्रामीण जनता की ईंधन, चारा, लघु प्रकाष्ठ, गैर प्रकाष्ठ, वनोपज आदि की मांग की पूर्ति करना तथा ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार के साधन उपलब्ध कराकर उनको गरीबी रेखा से ऊपर उठाना रहा है ।


उत्तर प्रदेश में वन अनुसंधान


उत्तर प्रदेश में वन अनुसंधान का कार्य वर्ष 1918 में राज्य वन वर्धनिक के रूप में स्मिथीज के भारतीय वानिकी सेवा की तैनाती के साथ प्रारम्भ हुआ ।

कालान्तर में वन अनुसंधान की गतिविधियों में विस्तार की प्रक्रिया में दो और वन वर्धनिकों की तेनाती की गई ।

वन क्षेत्रों की उत्पादकता में वृद्धि की महती आवश्यकता को अनुभव किया गया एवं इस दिशा में सघन कार्य हेत वर्ष 1970 में कानपुर में राज्य वन अनुसंधान प्रयोगशाला स्थापित की गई जिसे वर्ष 1993 में वन अनुसंधान संस्थान, उत्तर प्रदेश के रूप में उच्चीकृत किया गया ।


उत्तर प्रदेश में वन अनुसंधान के निम्न प्रमुख उत्क्रम क्षेत्र है -

  • वृक्ष सुधार कार्यक्रम के माध्यम से वनों की उत्पादकता में वृद्धि करना । 
  • मातृ वृक्षों से प्राप्त उच्च गुणवत्ता के बीज की आपूर्ति करना ।
  • वृक्षारोपण की दृष्टि से समस्याग्रस्त क्षेत्रों हेतु रोपण तकनीकों का विकास करना ।
  • औषधीय पौधों का उनके प्राकृतिक क्षेत्रों के भीतर एवं अन्यत्र संरक्षण करना । 
  • उपयुक्त कृषि वानिकी मॉडलो का विकास करना । 
  • पारिस्थितिकी एवं प्रदूषण सम्बन्धी अध्ययन करना । 
  • प्रशिक्षण, तकनीकी बुलेटिनों एवं प्रयोगशाला से भूमि तक पत्रकों के प्रकाशन के माध्यम से परिणामों का विकीर्णन करना ।


उत्तर प्रदेश में वानिकी की समस्या एवं निदान


प्रदेश की भौगोलिक स्थिति के कारण वानिकी कार्यों में अनेक प्रकार की तकनीकी समस्याएँ उत्पन्न हुई है, जैसे - ऊसर, बीहड़, खारे पानी के क्षेत्र, टेनरी के रासायनों, प्रदूषित जल, तराई क्षेत्र की खादर खोला भूमि, पर्वतीय क्षेत्रों की अवनत भूमि, ईंधन एवं चारा पत्ती तथा औद्योगिक प्रजातियों के रोपण आदि ।

उक्त वर्णित समस्याओं के निदान हेतु वानिकी से सम्बन्धित अनुसंधान कार्यों को प्रारम्भ किया गया, जिससे उन समस्याओं का निराकरण कर भौगोलिक स्थिति के अनुसार, प्रजातियों का चयन कर उपयुक्त स्थानों पर रोपित किया गया ।

जिससे वनों के क्षेत्र को बढ़ाने में काफी सफलता प्राप्त हुई है । प्रदेश में जनसंख्या वृद्धि का प्रभाव शहरी क्षेत्रों में भी पड़ा है ।

जिससे शहरी क्षेत्रों में पर्यावरणीय प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हुई है, जिसे दूर करने हेतु विभाग द्वारा शहरी क्षेत्रों की सुन्दरता को बढ़ाने तथा प्रदूषण को कम करने हेतु विभिन्न प्रकार की उपयुक्त प्रजातियों का रोपण किया गया है ।

कृषि वानिकी (krishi vaniki) कार्यों का बढ़ाने में अनुसंधान का विशेष महत्त्व है । अनुसंधान द्वारा वानिकी कार्यों में उत्पन्न हो रहा तकनीकी समस्याओं का निराकरण करने के साथ - साथ समय समय पर नई तकनीकी जानकारा भी उपलब्ध करायी गई है ।

वर्तमान में अनुसंधान द्वारा क्लोनल तकनीक से पौधे तैयार करन का कार्य सफलतापूर्वक किया जा रहा है । विभाग की विभिन्न पौधशालाओं में थैली के स्थान पर मटटेनर करके पौध उगाने का कार्य सफलतापूर्वक किया जा रहा है ।

वन अनुसंधान द्वारा विभिन्न प्रजातियों के उच्च कोटि के बीजों का एकत्रीकरण कार्य भी किया जाता है तथा एकत्रित बीजों को परीक्षण के उपरान्त वन प्रभागों को आपूर्ति किया जाता है ।

उच्च गुणवत्ता एवं अनवांशिकी की बीज आपूर्ति हेतु पूरे उत्तर प्रदेश में भिन्न प्रजातियों को धनात्मक वृक्ष / बीज वक्ष बीज उत्पादन क्षेत्र तथा क्लोनल बीज उद्यानों की स्थापना की गई है ।

इस प्रकार कृषि वानिकी (krishi vaniki) कार्यों को बढ़ाने में अनुसंधान का विशेष योगदान है । 


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उत्तर प्रदेश में कृषि वानिकी के लक्ष्य एवं कार्य योजनाएँ


प्रदेश में वानिकी के विकास एवं प्रसार के लिए वन विभाग की स्थापन की गई है ।


इसके कार्य एवं लक्ष्य निम्नानुसार हैं -

  • सामाजिक वानिकी अपनाते हुए जन सहयोग से जन केन्द्रित प्रणाली के माध्यम से पारिस्थितिकी तन्त्र को संरक्षित करना तथा प्राकृतिक वनों की सुरक्षा, विकास एवं प्रबन्धन करते हए वक्षारोपण के माध्यम से वनावरण वृद्धि का प्रयास करना । 
  • पारिस्थितिकी संतुलन बनाये रखना तथा पर्यावरण संरक्षण एवं जैव विविधता का संरक्षण करना । साथ ही प्रदूषण के कुप्रभावों को उपयुक्त प्रजातियों के रोपण द्वारा कम करना । 
  • ग्रामीण क्षेत्रों में ईंधन, चारा तथा लघु प्रकाष्ठ की उपलब्धता में वृद्धि फार्म वानिकी एवं कृषि वानिकी के माध्यम से करना, साथ ही वनीकरण को जन आन्दोलन का रूप देना ।
  • वन प्रबन्ध के माध्यम से वानिकी कार्यों में जनता की सहभागिता सुनिश्चित करते हुए प्रदेश में वनों / वनाच्छादित क्षेत्रों में वृद्धि करना । 
  • पौधों की उन्नत किस्में विकसित करके तथा उन्नत बीजों के अधिकाधिक प्रयोग से वनों की उत्पादकता में वृद्धि करना एवं अभिरुचि के विषयों में प्रशिक्षित कर स्टाफ की कार्यकुशलता बढ़ाना । 
  • वन एवं वन्य जीव अपराधों पर प्रभावी नियंत्रण करना । वन्य भूमि एवं क्षेत्र की सुरक्षा करना । वन्य क्षेत्र में अवैध खनन पर रोक लगाना ।


उपरोक्त लक्ष्यों के सम्बन्ध में उत्तर प्रदेश वन विभाग की महत्त्वपूर्ण योजनाएँ हैं -


1. कृषि वानिकी को बढ़ाना - 

इस योजना का मुख्य उद्देश्य आरक्षित वनों से बाहर के क्षेत्रों में ग्रामीणों को उनके गाँवों के समीप ईंधन, चारा पत्ती अन्य गैर प्रकाष्ठ वन उपज व ग्रामीण एवं लघु काष्ठ उद्योग हेतु कच्चा माल सुलभ कराने हेतु उपयुक्त प्रजातियों का रोपण करना तथा जनता में वृक्षारोपण के प्रति अभिरुचि जाग्रत करना है ।

कृषि वानिकी के अन्तर्गत किसानों की निजी भूमि पर रोपण हेतु उच्च गुणवत्ता के पौधे तैयार कर उपलब्ध कराना तथा कृषकों को वृक्षारोपण से मिलने वाली अतिरिक्त आय, वैज्ञानिक भू - उपयोग, औषधीय पौधों के बीच में मिश्रित खेती के विभिन्न मॉडलों को तैयार कराकर किसानों को अवगत कराना एवं इनका प्रचार - प्रसार करना सुनिश्चित किया जा रहा है ।


2. औद्योगिक एवं पल्पवुड वृक्षारोपण - 

इस योजना के अन्तर्गत काष्ठ आधारित उद्योगों जैसे - माचिस, प्लाईवुड , हार्डबोर्ड, पार्टिकल बोर्ड, पैकिंग केस, कत्था, फर्नीचर आदि की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उपयुक्त प्रजातियों को रोपण किया जाता है ।


3. क्षेत्रों में सामाजिक वानिकी - 

यह योजना शहरी क्षेत्रों में सड़कों के किनारे खाली पड़ी भूमि, नाले एवं पार्को के समीप की भूमि में शोभाकर वृक्षों का रोपण कर उन्हें वृक्षों से आच्छादित करने एवं शहरी क्षेत्रों में जनसंख्या के बढ़ते दबाव एवं औद्योगिक संस्थाओं से होने वाले वायु प्रदूषण को नियंत्रित कर घनी आबादी वाले शहरों के वातावरण को स्वच्छ एवं उनके सौन्दर्यवर्धन के उद्देश्य से चलायी जा रही है ।


4. अन्य महत्त्वपूर्ण योजनाएँ -

इसके अतिरिक्त कन्द्रीय सहायता से चलाई जा रही योजनाएँ हैं -


( अ ) राष्ट्रीय वनीकरण कार्यक्रम -

वन विकास अभिकरण के माध्यम से प्रदेश के जनपदों में भारत सरकार द्वारा वित्त पोषित राष्ट्रीय वनीकरण योजना के अन्तर्गत वानिकी कार्यों के साथ स्थानीय विकास, सुरक्षा एव सम्बन्धन कार्य में ग्रामवासियों की सहभागिता प्राप्त की जा रही है ।


( ब ) वन विभाग द्वारा वृक्षारोपण -

जनता के द्वारा  इस योजना के अन्तर्गत प्रत्येक जिला मुख्यालय के शहरी क्षेत्रों में किसी नागरिक द्वारा प्रभागीय वनाधिकारी से लैण्ड लाइन, मोबाइल, एस०एम० एस० अथवा ई - मेल द्वारा अपन आवास, परिसर अथवा अन्य भूमि पर वृक्षारोपण करने का अनुरोध करने पर आवेदित स्थल पर निर्धारित शुल्क का भुगतान कर वन विभाग द्वारा वृक्षारोपण किया जाता है ।

रोपित किए जाने वाले प्रत्येक एक वर्षीय, दो वर्षीय, शोभाकार पौध एवं अतिविशिष्ट पौध हेतु क्रमश: 15, 20, 20 एवं 40 रूपये देय होंगे । रख - रखाव, सुरक्षा, सिंचाई आदि की व्यवस्था सम्बन्धित नागरिक द्वारा की जायेगी ।


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जनपद (मेरठ) में कृषि वानिकी विकास की रूपरेखा


मेरठ क्षेत्र में सामाजिक वानिकी कार्यक्रम वर्ष 1945 में लण्ड मैनेजमेन्ट सर्किल को स्थापना के बाद से ही किसी न किसी रूप में जारी रहा है ।

उस समय मेरठ क्षेत्र के पाँच जनपद, यथा - सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बुलन्दशहर एवं गाजियाबाद उत्तरी दोआब वन विभाग जिसका मुख्यालय मेरठ में था, के अंतर्गत आते थे ।

वर्ष 1979 में विश्व बैंक पोषित सामाजिक वानिकी परियोजना लागू होने से पूर्व प्राय: जमींदारी प्रथा समाप्त होने के पश्चात् वन विभाग में विलय हुए वन खण्डों का मैनेजमेन्ट करने तथा सड़क एवं नहर की पटरियों पर वृक्षारोपण करने पर ही बल दिया जाता था ।

उत्तर प्रदेश के मैदानी जनपदों के ग्रामीणों की बढ़ती हुई ईधन चारा, पत्ती, इमारती लकड़ी की पूर्ति करने हेतु तथा भूमिहीनों के लिए रोजगार के नये अवसर जुटाने के उद्देश्य से वर्ष 1979 में विश्व बैंक की मदद से सामाजिक वानिकी परियोजना लागू की गई ।

सामाजिक वानिकी के प्रथम चरण, 1979 से 1984 में सड़क पटरी, रेल पटरी, नहर पटरी, सामुदायिक भूमि तथा परती, ऊसर, अनुपयोगी (अवनत) वन भूमि पर वृक्षारोपण करने पर विशेष बल दिया गया ।

ग्रामीणों को रियायती दर पर ईंधन, चारा एवं लकड़ी देने वाली पौध उपलब्ध कराने हेतु प्रभागों में अनेक विभागीय नर्सरियाँ स्थापित की गयी ।


वन क्षेत्र में वृद्धि के लिए जनपद मेरठ में निर्धारित रणनीति


जनपद में भौगोलिक क्षेत्र का एक तिहाई भाग वनों से आच्छादित रहे एवं वनाच्छादित क्षेत्र को अधिकाधिक बढ़ाने के लिए विभाग द्वारा निम्नानुसार रणनीति प्रस्तावित है -

  • राजकीय विभागों एवं विकास प्राधिकरणों द्वारा वृक्षारोपण करवाना । जनपद में भूमि उपयोग करने वाले समस्त विभागों, जैसे - लोक निर्माण, सिंचाई, सहकारिता, कृषि, ग्राम विकास, कैण्टोमेंट तथा अन्य के लिए निर्धारित क्षेत्रफल में वन लगाना अनिवार्य किया जाना ।
  • सरकारी एवं निजी क्षेत्र में लगने वाले उद्योगों एवं अन्य परियोजनाओं में भी उनके पास उपलब्ध भूमि में पेड़ लगवाना । विकास प्राधिकरणों के द्वारा विकसित की जा रही नई आवासीय कालोनियों में कम से कम एक तिहाई क्षेत्रफल में ग्रीन बेल्ट का निर्धारण कर उस पर पेड़ लगवाना । शिक्षण संस्थाओं, यथा - विश्वविद्यालयों / विद्यालयों, पाठशालाओं एवं अन्य संस्थानों में जिनके भी पास बड़े परिसर हैं, पेड़ लगवाना ।
  • कृषकों को वृक्षारोपण करने हेतु प्रोत्साहित करना । इसके लिए वांछित मात्रा में उपयुक्त प्रजातियों को किसानों को उपलब्ध कराने के लिए पौधशाला का संचालन करना । साथ ही सड़कों, नहरों एवं रेल मार्गों के किनारे वृक्षारोपण करना एवं ऊसर, बीहड़ एवं निष्प्रोज्य खाली भूमि को विकसित कर पेड़ लगाने के लिए निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित किया जाना ।
  • प्रकाष्ठ के मूल्य में असाधारण वृद्धि के फलस्वरूप वन क्षेत्रों में अवैध कटान की आशंका में बढ़ोतरी हुई है, किन्तु जनपदीय वन विभाग द्वारा चौकसी बढ़ाकर इस समस्या पर नियंत्रण पाने का प्रयत्न किया जा रहा है । साथ ही वन भूमि पर अतिक्रमण की समस्या पर अंकुश लगाने के लिए वन विभाग न्यायालय एवं प्रशासनिक सहायता लेकर कार्य कर रहा है ।


उत्तर प्रदेश में कृषि वानिकी एवं सामाजिक वानिकी का विकास


उत्तर प्रदेश जनसंख्या के आधार पर भारत का सबसे बड़ा राज्य है ।

यह राज्य 2,38,566 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विस्तरित है तथा इसकी सीमाएँ उत्तर में उत्तराखंड, नेपाल एवं तिब्बत, दक्षिण में मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़, पश्चिम में हरियाणा, दिल्ली व राजस्थान एवं पूर्व में बिहार को स्पर्श करती हैं ।

2000 ई० में भारतीय संसद द्वारा उत्तर प्रदेश के प्रमुख उत्तर पश्चिमी पहाड़ी क्षेत्र को उत्तर प्रदेश से अलग कर उत्तरांचल (वर्तमान में उत्तराखंड) राज्य का निर्माण किया गया । इसके बावजूद वर्तमान में उत्तर प्रदेश में कुल 71 जनपद हैं ।

उत्तराखंड के अलग हो जाने के बाद से यद्यपि उत्तर प्रदेश का अधिकांश भाग गंगा और यमुना के दोआब का मैदानी प्रदेश ही रह गया है तथापि अभी भी अनेक जनपद सघन वनों से आच्छादित है । राज्य में वन मुख्यतः दक्षिणी उच्चभूमि पर केन्द्रित हैं, जो अधिकांशतः झाड़ीदार हैं ।

प्रदेश में बाँस, काँस आदि की भी बहुतायत उपलब्धता है तथा नीम, बबूल, शीशम, जामुन, पीपल, बरगद, आम आदि वृक्ष प्रचुरता से पाये जाते हैं । प्रदेश के वनों में चन्द्रप्रभा अभ्ययारण्य एवं दुधवा अभयारण्य सहित अनेक अभयारण्य भी स्थापित है ।

उत्तर प्रदेश में कृषि वानिकी एवं सामाजिक वानिकी विकास में सामाजिक वानिकी एवं पारि - पुनर्स्थापन केन्द्र, इलाहाबाद एवं उत्तर प्रदेश वन निगम, लखनऊ की विशेष भूमिका है ।


सामाजिक वानिकी एवं पारि - पुनर्स्थापन केन्द्र


भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद् , देहरादून के अंतर्गत अक्टूबर, 1992 ई० में उन्नत केन्द्र के रूप में सामाजिक वानिकी एवं पारि - पनर्स्थापना केन्द्र, इलाहाबाद की स्थापना की गई ।

इस केन्द्र का उद्देश्य उत्तर प्रदेश, बिहार एवं मध्य प्रदेश के विन्ध्य क्षेत्र में सामाजिक वानिकी और पारि - पुनर्स्थापना के क्षेत्र में प्राथमिक भूमिका निभाना है ।

इस केन्द्र का मुख्य अनुसंधान क्रियाकला है - रोपण स्टॉक, सुधार कार्यक्रम, परती भूमि पुनर्स्थापन, कृषि वानिकी मॉडलों का विकास, वनीकरण द्वारा खनित क्षेत्रों का पुनर्स्थापन, पारिपद्धति की उत्पादनकता, शीशम मृत्यता पर अध्ययन, औषधीय पादक आदि का अध्ययन है ।

केन्द्र ने अनेक अनुसंधान परियोजनाओं को चलाने के साथ ही पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा आयोजित कार्यक्रमों के अंतर्गत आगरा, इलाहाबाद, मेरठ, बरेली, शाहजहांनपुर, मिर्जापुर, रेनुकूट, बलिया, जलौन एवं कानपुर में उत्तर प्रदेश वन विभाग के तत्वाधान में मनीटरिंग तथा मूल्यांकन में विशेष भूमिका का निर्वाहन किया है ।


परियोजनाएँ ( Projects )


सामाजिक वानिकी एवं पारि - पुनर्स्थापन केन्द्र के तत्त्वाधान में समय - समय पर अनेक परियोजनाओं को चलाया जाता रहा है ।


जिसमें प्रमुख निम्नलिखित है -


( 1 ) औषधीय पौधों एवं पौधशालाओं का विकास -

इसके अंतर्गत अनेक वन्य क्षेत्रों के समीपवर्ती क्षेत्रों में औषधीय पौधों के पादपों का पौधशालाओं में विकास कर जन सहयोग सेक्षेत्र में रोपित किया जाता है ।


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इनमें प्रमुख औषधीय पौधे हैं -

  • एस्प्रागस रेसीमोसस ( सतावर )
  • दिनका रोसिया ( सदाबहार )
  • टीनोस्पोरा कार्डीफोलिया ( गिलोय )
  • क्लोरोफाइटम अरुन्डीनेसियम ( सफेद मूसली ) रौवोल्फिया सपेंन्टियाया ( सर्पगंधा )
  • वलेरिया प्रायोनाइटिस कालावासा )
  • प्लान्टागो ओवाटा ( ईसबगोल )
  • प्लम्बेगो जेलिनिका ( चित्रक )
  • एलोय वेरा ( घीकुवार )
  • केसिया एंग्वेस्टीफोलिया ( सनाए )
  • जिम्नेमा सेल्वेस्ट्री ( गुड़मार )
  • एकोरस केलेमस ( बच )
  • एबलमोक्स मोकेटस ( मुश्क दाना )
  • एन्ड्रोग्रैफिक्स पेनीक्यूलाटा ( कालमेघ )
  • सोरलिया कार्डीफोलिया ( बावची )
  • साइप्रस रोटंडस ( नागरमोथा )
  • ओसीमस सैंकटम ( तुलसी ) अदि ।


( 2 ) बांस प्रजातियों के कृषि वानिकी मॉडलों का विकास -

इसके अन्तर्गत चयनित गाँवों में बाँस के कृषि वानिकी नमूनों का विकास करने के लिए कार्य किया गया । चयनित गाँवों में डेन्ड्रोकेलेमस स्ट्रिक्टस एवं बेम्बूसा बम्बोस की पौधशाला स्थापित कर बाँस प्रजातियों के अंकुरण एवं पौध वृद्धि पर बीज श्रेणीकरण के प्रभाव पर अध्ययन किया गया ।


( 3 ) जैट्रोफा पर अनुसंधान एवं विकास -

इसके अन्तर्गत नोवोड़ ( NOVOD ) बोर्ड से सहायता लेकर, बोर्ड के दिशा निर्देशों के अनुसार धन वृक्षों की पहचान करने और चिन्हित करने के लिए उत्तम रोपण सामग्री का सर्वेक्षण किया गया । डाटा को अकारिकीय एवं ऋतुजैविकीय आधार पर रिकार्ड किया गया तथा चिन्हित पौधों में जैट्रोफा के बीजों से तेल की मात्रा का विश्लेषण किया गया । परियोजना में जैट्रोफा के बीजों को बोने से पूर्व उपचारित करने के प्रभावों का अध्ययन एवं प्याज की कृषि के साथ जैट्रोफा की कृषि वानिकी का परीक्षण भी किया गया ।


उत्तर प्रदेश वन निगम | Uttar Pradesh Forest Corporation


उत्तर प्रदेश के वनों के अपेक्षाकृत अधिक प्रभावी संरक्षण, विकास तथा वनोपज के वैज्ञानिक विदोहन के लिए स्थानीय प्राधिकरण के रूप में उत्तर प्रदेश वन निगम अधिनियम 1974 के अंतर्गत 25 नवम्बर 1974 को उत्तर प्रदेश वन निगम की स्थापना हुई ।

अन्य प्रदेशों के वन प्रदेशों के वन विकास निगम कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत कम्पनी के रूप में पंजीकृत है, जबकि उत्तर प्रदेश वन निगम का गठन राज्य सरकार के स्थानीय निकाय के रूप में उत्तर प्रदेश वन निगम अधिनियम के उपबन्धों तथा सरकार के निर्देशों के अधीन किया गया है ।


उत्तर प्रदेश वन निगम द्वारा सम्पादित किये जा रहे वर्तमान कार्यकलापों को निम्न वर्गों में वर्गीकृत किया गया है -

  • वनों से प्रबन्ध योजना के अनुरूप वनोपज का निष्पादन एवं निस्तारण ।
  • तेन्दुपत्ता संग्रहण एवं निस्तारण का कार्य ।
  • ललितपुर, झांसी, महोबा, चित्रकूट, मिर्जापुर, सोनभद्र एवं वाराणसी जनपदों में जड़ी - बूटी संग्रहण, भण्डारण एवं विपणन का कार्य ।


संगठन एवं कार्य प्रगति | Organization and Work Progress


उत्तर प्रदेश वन निगम के समस्त कार्यों का संचालन शासन द्वारा गठित प्रबन्ध मण्डल के माध्यम से किया जाता है, प्रबन्धकीय कार्यों के निर्देशन एवं निष्पादन हेतु लखनऊ स्थित

मुख्यालय पर एक प्रबन्ध निदेशक की नियुक्ति शासन द्वारा की जाती है ।

प्रबन्ध निदेशक के सहायतार्थ मुख्यालय में अपर निदेशक, महाप्रबन्धक (उत्पादन), महाप्रबन्धक (विपणन), महाप्रबन्धक (उद्योग), महाप्रबन्धक (कार्मिक), महाप्रबन्धक (तेन्दू पत्ता), क्षेत्रीय प्रबन्धक (मुख्यालय), कार्मिक प्रबन्धक, मुख्य लेखाधिकारी एवं वित्तीय परामर्शदाता, वरिष्ठ लेखाधिकारी, योजना एवं मूल्यांकन अधिकारी, प्रशासकीय अधिकारी, लेखाधिकारी (मुख्यालय), विवणन अधिकारी, विक्रय अधिकारी (विपणन) एवं आन्तरिक लेखा परीक्षाधिकारी तैनात किये गये हैं ।

प्रबन्ध मण्डल द्वारा वनोपज के विदोहन एवं विपणन कार्यों के संचालन हेतु दो महाप्रबन्धक, छह क्षेत्रीय प्रवन्धक एवं पच्चीस प्रभागीय विक्रय प्रबन्धकों की व्यवस्था रखी गई है ।


ऐतिहासिक दृष्टि से उत्तर प्रदेश की कार्य प्रगति को निम्नानुसार चार कालों में विभाजित कर देखा जा सकता है -


( 1 ) प्रथम काल ( वर्ष 1974-75 से 1981-82 तक ) -

इस अवधि में उत्तर प्रदेश वन निगम के कार्य क्षेत्र में शनैं - शनैं वृद्धि होती गई एवं वन उपज जैसे - टिम्बर, जड़ीबूटियों आदि के विपणन आदि का कार्य वन निगम को दिया गया ।


( 2 ) द्वितीय काल ( वर्ष 1982-83 से 1988-89 तक ) -

इस अवधि में विकास योजनाओं के चलते उत्तर प्रदेश वन निगम का कार्य क्षेत्र अपने चरम पर रहा है तथा वन सम्बन्धी अधिकांश कार्य इसके माध्यम से ही हुए है ।


( 3 ) तृतीय काल ( वर्ष 1988-89 से 2000-2001 तक ) -

इस अवधि में एक ओर पर्यावरण चेतना में बढ़ोतरी से वन उत्पादन प्रति वर्ष कम होता गया तो दूसरी ओर नवीन कार्य क्षेत्र की खोज निरन्तर जारी रही । इसी के परिणामस्वरूप सामाजिक वानिकी एवं कृषि वानिकी को भी उत्तर प्रदेश वन निगम के कार्य क्षेत्र के अंतर्गत सम्मिलित किया गया । 31 मार्च 2001 तक उत्तरांचल व उत्तर - प्रदेश में अविभाजित प्रदेश की भाँति वन निगम कार्य करता रहा ।


( 4 ) चतुर्थ काल ( वर्ष 2000-2001 से आगे ) -

इस अवधि में उत्तर प्रदेश वन निगम का कार्य क्षेत्र उत्तरांचल से सिमट कर उत्तर - प्रदेश में ही सीमित रह गया ।